सोमवार, 22 अगस्त 2011

बढ़ती उम्र और मन |

बढ़ने लगी उम्र

हमारी भी, तुम्हारी भी

थमने लगी है नब्ज़

हमारी भी, तुम्हारी भी

आओ जीने की कुछ वजह चुन लें

ढलने लगी है शाम

हमारी भी, तुम्हारी भी|



की आएगी ना लौट के

ये घड़ी बार बार

कुछ और दिन जो रह गए

उन को तो जी लो यार

ये बात मेरी सुन के

यूँ ना मुस्कुराइए

दो चार दिन की जिंदगी

ना यूँ गँवाइए|



मुद्दत के बाद फिर

किसी पे दिल ये आया है

मुद्दत के बाद मिलन का

सपना सजाया है,

अब आप मेरी बात को

बस मान जाइए

जो बीत गये पल ये

तो फिर ना पछताईए



ये उम्र का बढ़ना भी

बुरी बात है, ए दिल

ज्यों ज्यों दिया बुझने लगा

त्यों त्यों मिले मंज़िल

मंज़िल करीब आ गयी

तो बुझने लगा है

की, अब खुदा ने आने का

फरमान दिया है|



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