सुबह उठे
दिवस भर भागे
सांझ भई
घर भागन लागे ,
रात अंधेरा
निंदिया लागे ,
दिवस रैन
बस भागम भागे ,
वृद्ध भए
तो रोवन लागे
केह कारण
मनवा ना जागे |
ना जग तेरा
ना जग मेरा
सब दो दिन का
रैन बसेरा ,
नौ माहा
उल्टा हो लटका ,
गर्भ जोनि
सदियों से भटका ,
बार बार
मरना और जीना
बार बार
माया में लीना |
यह संसार है
गोरख धंधा
नयन पास
फिर भी सब अँधा
करें तो क्या
कुछ समझ ना आता |
जागो रे मन
अब ना जागे
तो कब जागे ,
माया के सपने में सोए ,
विषय , वासना
मद में खोए ,
दिवस रात
सपनों में खोए
जागो रे मन
अब ना जागे
तो कब जागे |
जागो रे जिन जागना
अब जागन की बार ,
फिर क्या जागे नानका
जब छोड़ चले संसार |
राजीव
१/१२/२०११
bahut sunder ...
जवाब देंहटाएंman ki aankhen kholta hua ...
कल शनिवार ... 03/12/2011को आपकी कोई पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
बेहद खुबसूरत लिखा है |
जवाब देंहटाएंमन को जगाना ही सही अर्थों में जागना है .. अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंसार्थक रचना....
जवाब देंहटाएंसादर बधाई...
so true,,,life has become so mechanical that one can simply not live it thoroughly,,,when it crosses its fifty then one realizes,,,very well written, Rajiv ji,,,congrats!
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