बुधवार, 15 अगस्त 2012

मम अंतर----INSIDE MYSELF.


मम अंतर 
बरसात झमाझम 
मम अंतर
बूंदों का नर्तन 
मम अंतर    
बिजली  का गर्जन 
मम अंतर 
सावन का मौसम |

मम अंतर
गर्मी की धूप
मम अंतर
दोपहरी की लू
मम अंतर
आंधी तूफान 
मम अंतर 
सुबह और शाम |

मम अंतर
लहरें उत्तंग 
मम अंतर 
यमुना और गंग 
मम अंतर 
 धरती  आकाश
मम अंतर
धवल प्रकाश |

मम अंतर 
नभ और पाताल
मम अंतर
ब्रह्माण्ड विशाल
मम अंतर
सूरज और चाँद
मम अंतर
विस्तृत आसमान |

राजीव |
०७/०८/२०१२
गगन मुझ में , चमन मुझ में
मुझ में धरा - आकाश है
अंधकार मुझी में है
मुझी में ही प्रकाश है |


रविवार, 5 अगस्त 2012

मैं अपना बचपन नहीं भूल पता , क्या आप भुला पाए हैं


क्या भूलूं 
क्या याद करूँ
कितनी बातें
कुछ खट्टी
कुछ मीठी यादें
कुछ भूली
कुछ बिसरी यादें
बचपन  से तरुणाई की  |

कहाँ गई
प्यारी सी दादी
जिस के आंचल  में
मूं ढक 
सोता था
कितनी बात किया करती थी ,
रात अँधेरा होता था |
मां से डांट
मुझे जब पड़ती ,
साथ मेरा दिया करती थी  
मैं मन मन खुश होता था  |
कहाँ गई
मेहँदी की बगिया
कहाँ गया
बेरी का पेड़
मेरे उपवन के
सब पौधे
जाने किस दिन
हो गए ढेर  |
सुबह  अंगीठी
शाम अंगीठी
गरम गरम रोटी की गंध ,
होली पर
रंगों की बारिश
ढोलक पर गीतों के   न्द |


कोई 
मेरा बचपन लौटा दे
फिर
दादी की झलक दिखा दे ,
बगिया के
पौधे लौटा दे ,
रंगों की
बारिश करवा दे |

राजीव
२७/०५/ २०१२
मैं अपना बचपन नहीं भूल पता , क्या आप भुला पाए हैं  |






































कल  रात
मेघ भी थे ,
पवन भी थी ,
चाँद भी था ,
चमकते सारे सितारे भी 
गगन में थे ,
तुम नहीं
बस तुम नहीं थीं ,
ढूंढ़ ता तुम को रहा
मैं रात भर  |

मुझ को पता क्या था ,
छुपी थी तुम
मेरे भीतर  ,
मेरे अहसास में ,
मेरी हर श्वास में ,
मेरे हर रुदन में ,
मेरे अट्टहास में  ,
ह्रदय में मेरे ,
छुपी थी तुम ,
मुझ को पता क्या था  
मुझी में
छुप रहीं थी तुम |

राजीव
02/06/2012







भीषण ताप
जेठ की गर्मी ,
तपता सूरज
उडती धूल  |

बरसो हरि
मेघ बन बरसो ,
ताप मिटाओ
पाप मिटाओ ,
संशय की 
सब धूल हटाओ |

   मन  पंछी के 
  पंख जल रहे ,
हरि नाम बिन
तन पिघल रहे  ,
बरसो हरि 
दम निकल रहे |

ना कहीं छाया
धूप ही धूप 
मनवा सागर
गया है सूख
जल के बिना
जल रहा रूप
बरसो हरि 
मिटाओ धूप |

राजीव 
१६/०६/२०१२
आसाड़ु तपंदा तिसु लगै हरि नाहु जिंना पासि आसाड़ु सुहंदा तिसु लगै जिसु मनि हरि चरण निवास ॥५॥









मैं तो समझा 
जिस को ढूंढा था
मिल गया वो ही ,
मैं तो समझा था
हमराज मिल गया कोई ,
मेरी  नादानी 
किसे राजदार 
कह बैठा ,
दो मुलाकात में
क्यूँ  उस को यार 
कह बैठा |

एक बदरी सी 
मेरे आसमां पे
छाइ थी ,
एक अपनी सी छवि
मन को मेरे 
भाइ थी ,
क्या पता था
मेरे मन का 
वो छलावा था  ,
क्या पता था 
वो घडी
घडी भर को आइ थी |
राजीव
१०/०७/२०१२










ना वो लम्हे रहे |


तूने
लम्हों को मेरे
इस कदर तराशा था
हरेक लम्हा  मेरा
जैसे बुत
खुदा का था |

ना
वो लम्हे रहे ,
मैं भी
बुत परस्त नहीं ,
तू भी
अब तू ना रही
जाने क्या बात हुई
अब
वैसी बात नहीं |
राजीव