शनिवार, 8 सितंबर 2012

मन ही मन को छलता है |


अंतर में होती जब पीड़ा
पीड़ा में सुख मिलता है ,
ये सुख मुझ को बहुत मिला है |

होता है जब मन एकाकी
मन ही मन को छलता है,
मैंने खुद को बहुत छला है |

 पीड़ा का सुख  पाया  हमने 
जलता दिया बुझाया हमने 
तुम क्या जानो पीड हमारी
सबसे दर्द छुपाया हमने |

आंसू पी कर हँसना सीखा
सब के आगे हँसता दिखा
तुम क्या जानो दर्द हमारा
सुख ने हम से किया किनारा  |
राजीव
०८/०९/२०१२ 

2 टिप्‍पणियां:

  1. श्रेष्ट ब्लॅाग के लिये बधाई...राजीव जी....
    संरचनाओं के यथार्थ-चेहरे उकेरने का कैनवस और तिलिस्म ..... पर धन्यवाद.....
    जगजीवन जोत सिँह आनन्द

    जवाब देंहटाएं
  2. श्रेष्ट ब्लॅाग के लिये बधाई...राजीव जी....
    संरचनाओं के यथार्थ-चेहरे उकेरने का कैनवस और तिलिस्म ..... पर धन्यवाद.....
    जगजीवन जोत सिँह आनन्द

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