गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

जागो रे जिन जागना |



सुबह उठे
दिवस भर भागे
सांझ भई
घर भागन लागे ,
रात अंधेरा
निंदिया लागे ,
दिवस रैन
बस भागम भागे ,
वृद्ध भए
तो रोवन लागे
केह कारण
मनवा ना जागे |

ना जग तेरा
ना जग मेरा
सब दो दिन का
रैन बसेरा ,
नौ माहा
उल्टा हो लटका ,
गर्भ जोनि
सदियों से भटका ,
बार बार
मरना और जीना
बार बार
माया में लीना |

यह संसार है
गोरख धंधा
नयन पास
फिर भी सब अँधा
करें तो क्या
कुछ समझ ना आता |

जागो रे मन
अब ना जागे
तो कब जागे ,
माया के सपने में सोए ,
विषय , वासना
मद में खोए ,
दिवस रात
सपनों में खोए
जागो रे मन
अब ना जागे
तो कब जागे |

जागो रे जिन जागना
अब जागन की बार ,
फिर क्या जागे नानका
जब छोड़ चले संसार |


राजीव
/१२/२०११







6 टिप्‍पणियां:

  1. कल शनिवार ... 03/12/2011को आपकी कोई पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  2. मन को जगाना ही सही अर्थों में जागना है .. अच्छी रचना

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  3. so true,,,life has become so mechanical that one can simply not live it thoroughly,,,when it crosses its fifty then one realizes,,,very well written, Rajiv ji,,,congrats!

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